महिला कल्याण योजना चुनाव : सरकार ने महिलाओं के लिए लाड़ली से लक्ष्मी तक कई योजनाएं चलाईं, लेकिन बढ़ते घाटे से आर्थिक संकट गहराया।
चुनावी साल में बिहार सरकार और विपक्ष दोनों ने महिलाओं को लुभाने के लिए तमाम योजनाओं और आर्थिक तोहफों की बरसात कर दी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लाड़ली योजना और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की माई बहन योजना इन प्रयासों के बड़े उदाहरण हैं। हालांकि, इन योजनाओं का उद्देश्य महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण के साथ-साथ वोट बैंक भी मजबूत करना होता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर की गई इन घोषणाओं से सरकार को घाटा नहीं हुआ? क्यों चुनावी साल में महिलाओं के लिए बढ़ाए गए खर्च ने राजकोषीय स्थिति को कमजोर किया है?
चुनावी साल और महिलाओं को लक्ष्य बनाना

बिहार जैसी राज्य की राजनीति में चुनावी रणनीति में महिलाओं का मतदाता वर्ग बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पिछले सालों में भी सरकारों ने महिलाओं को विभिन्न तरह के लाभ और योजनाएं देकर उनका समर्थन हासिल करने की कोशिश की है। नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री लक्ष्मी योजना के तहत महिलाओं को सीमित धनराशि दी जाती है, वहीं तेज़स्वी यादव ने हाल ही में ‘माई बहन मान’ योजना के तहत महिलाओं को भारी आर्थिक मदद देने का वादा किया है। इन योजनाओं ने कई गरीब और मध्यम वर्गीय महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद की है, पर साथ ही ये योजनाएं सरकारी खजाने पर भारी पड़ती हैं।
लाड़ली योजना से माई बहन मान तक
- लाड़ली योजना के तहत महिलाओं को 10,000 रुपये की सहायता प्रदान की जाती आई है
- जो राज्य के 1.4 करोड़ से अधिक महिलाओं तक पहुंच चुकी है। इस योजना का उद्देश्य महिलाओं की शिक्षा
- स्वास्थ्य और आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा देना था। जबकि तेजस्वी यादव ने माई बहन मान योजना घोषित की है
- जिसमें सरकार बनने पर 30,000 रुपये की एकमुश्त राशि हर पात्र महिला के खाते में जमा की जाएगी।
- यह घोषणा सामाजिक न्याय और महिला सशक्तिकरण का संदेश देने के साथ-साथ वोट बैंक
- पर भी बड़ा असर डालती है। हालांकि, यह योजना लागू करने पर लगभग 60,000 करोड़ रुपये का भारी वित्तीय बोझ बन सकती है।
राजकोषीय दबाव और आर्थिक घाटा
महिलाओं को किए गए ये बड़े वादे राजकोष पर भारी पड़ते हैं। बिहार के वार्षिक बजट में इन योजनाओं के लिए बड़ी रकम आवंटित करनी पड़ती है, जिससे कई अन्य विकास योजनाओं के लिए संसाधन कम पड़ जाते हैं। खासकर चुनावी साल में इन योजनाओं की घोषणा राजनेताओं को पार्टी को वोट दिलाने में मदद देती है, लेकिन इसकी वजह से वित्तीय अनुशासन और दीर्घकालिक विकास प्रभावित होता है। कई बार इस वजह से सरकार घाटे में चली जाती है जबकि संसाधनों की कमी के कारण अन्य जरूरी सेक्टरों में विकास का धीमा होना आम बात हो जाती है।
महिलाओं के बीच राजनीतिक आयोजनों का प्रभाव
- महिला वोटरों की संख्या बिहार में 4.8 करोड़ से अधिक है, जो राज्य का निर्णायक मतदाता वर्ग बन चुकी हैं।
- इससे नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव दोनों को चुनावी रणनीति में महिलाओं पर विशेष ध्यान देना पड़ता है।
- महिलाओं को आर्थिक समर्थन और रोजगार देने के वादे उनके वोट बैंक को मजबूत करने के लिए जरूरी समझे जाते हैं।
- हालांकि कई महिलाओं का मानना है कि केवल पैसे देना ही समाधान नहीं, बल्कि
- शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
सामाजिक और आर्थिक चुनौतियां!
बिहार में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन रोजगार के अवसर, शिक्षा की गुणवत्ता और स्वास्थ्य सेवाओं में अभी भी कई बाधाएं हैं। चुनावी साल में तोहफों की बरसात से कुछ हद तक मदद मिलती है, लेकिन इसके स्थायी परिणाम तभी मिल पाएंगे जब इन योजनाओं के साथ महिलाओं के लिए रोजगार, शिक्षा और न्याय सुनिश्चित किया जाए। बिना संतुलित नीति और दीर्घकालिक दृष्टिकोण के ये तोहफे फायदेमंद तो होते हैं लेकिन सरकारी खजाने के लिए बोझ भी बन जाते हैं।
- चुनावी साल में महिलाओं के लिए बड़ी आर्थिक घोषणाएं करना राजनीतिक पार्टियों का रणनीतिक हिस्सा है
- जो उनकी लोकप्रियता बढ़ाने में मदद करता है। लेकिन इसका एक बुरा पहलू यह है
- कि बड़े पैमाने पर आर्थिक तोहफे देने के कारण सरकार घाटे में चली जाती है
- और विकास कार्य प्रभावित होते हैं। लाड़ली योजना से लेकर माई बहन मान योजना तक
- ये सभी योजनाएं महिलाओं के लिए उपकारक तो हैं लेकिन इन्हें सतत और प्रभावी बनाने के
- लिए इनमें आर्थिक स्थिरता और समेकित नीति की आवश्यकता है।
- तभी बिहार में महिलाओं का सशक्तिकरण वास्तविक और टिकाऊ होगा।












