बिहार विधानसभा चुनाव किसान : बिहार में विधानसभा चुनावों की गर्माहट एक बार फिर मैदानों से लेकर चौपालों तक महसूस की जा रही है। इस बार दिलचस्प बात यह है कि जैसे किसानों के खेतों में धान की फसल पक चुकी है, वैसे ही राजनीतिक निर्णय भी तैयार दिख रहा है। किसान अब यह तय करने के मूड में हैं कि इस बार कौन सत्ता की फसल काटेगा और कौन अपने खेत तक सीमित रह जाएगा।
धान की खुशबू के साथ चुनावी चर्चा
राज्य के गाँवों में इस समय दो ही बातें सबसे ज्यादा सुनी जा रही हैं – फसल और चुनाव। किसान दिन में खेतों में मेहनत कर फसल की कटाई में जुटे हैं तो शाम को चौपालों और tea-stall पर राजनीति की फसल बोई जा रही है। हर गलियारे में यही चर्चा है कि इस बार कौन उनकी तकदीर बदल पाएगा।

किसानों का कहना है कि उन्होंने साल भर मेहनत की, बारिश से लेकर मंडी तक की मुश्किलें झेली हैं। अब वे यह देखने को तैयार हैं कि नेता उनके हक और सम्मान के मुद्दों को कितना समझते हैं। “धान हमने तैयार किया, अब फैसला भी हमारा तैयार है,” एक किसान ने गर्व से कहा।
मुद्दों की फसल: न्यूनतम समर्थन मूल्य और सिंचाई की दिक्कतें
बिहार में सबसे बड़ा मुद्दा हमेशा से किसान हित और कृषि व्यवस्था ही रहा है। राज्य के अधिकांश इलाके कृषि आधारित हैं, लेकिन सिंचाई व्यवस्था, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और किसान कल्याण योजनाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं है। किसान बताते हैं कि MSP पर धान की खरीद अक्सर समय से नहीं होती, जिससे उन्हें औने-पौने दाम पर फसल बेचनी पड़ती है।
इसके अलावा कई इलाकों में नहरों और ट्यूबवेलों की कमी के कारण किसान अभी भी वर्षा पर निर्भर हैं। यह स्थिति हर साल उनकी फसल और आय दोनों पर असर डालती है। किसानों की यह नाराजगी अब चुनाव में एक बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।
युवाओं और किसानों का गठजोड़
इस बार खास बात यह है कि युवा पीढ़ी भी गांव की राजनीति में सक्रिय नजर आ रही है। कई युवा जो पहले शहरों में काम करते थे, अब गांव लौट आए हैं और वे खेती से लेकर सामाजिक बदलाव तक में जुड़ना चाहते हैं। ऐसे में किसानों और युवाओं का यह गठजोड़ राजनीतिक दलों के लिए एक संकेत है कि अब केवल वादों से जनता नहीं मानेगी।
कई युवा किसान संगठनों और स्थानीय समूहों के माध्यम से सरकार से जवाब मांग रहे हैं कि रोजगार, शिक्षा और कृषि को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती। स्थानीय स्तर पर यह जनजागरण अभियान कई दलों की नींद उड़ा रहा है।
सत्ता की राह गांवों से होकर
बिहार की राजनीति में गांवों की भूमिका हमेशा निर्णायक रही है। चाहे वह जातीय समीकरण हो या विकास के मुद्दे, अंतिम फैसला खेतों से ही निकलता है। इस बार भी गांव के किसान तय करेंगे कि पटना की कुर्सी किसके हिस्से आएगी।
राजनीतिक पार्टियां इस बात को भली-भांति समझती हैं, इसलिए वे अब गांवों में रैलियां और किसान सभाएं बढ़ा रही हैं। प्रचार में “कृषि विकास”, “किसान सम्मान”, “रोजगार और सिंचाई” जैसे शब्द बार-बार सुनाई दे रहे हैं। लेकिन किसान अब वायदों के बजाय नतीजों की बात करने लगे हैं।
किसानों का मूड – अबकी बार जवाबी फसल
ग्रामीण इलाकों से जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे यह साफ है कि किसान अब बेहद सजग हैं। वे अब पार्टी नहीं, बल्कि अपने मुद्दों के हिसाब से वोट देने का मन बना रहे हैं। पिछले वर्षों में हुए वादों और अधूरे कामों को लेकर किसानों में नाराजगी भी झलक रही है।
“हमने पांच साल इंतजार किया, अब देखेंगे कौन संभालेगा खेत और सत्ता,” कई किसानों का यही कहना है। उनके लिए यह चुनाव केवल नेताओं का नहीं, बल्कि अपने भविष्य का फैसला है।
जैसे धान की फसल किसान की मेहनत का परिणाम होती है, वैसे ही यह चुनाव भी जनता की सोच और संघर्ष का नतीजा होगा। बिहार के किसान अब केवल दर्शक नहीं, बल्कि निर्णयकर्ता बन गए हैं। इस बार खेत की हर बाल और वोट की हर पर्ची दोनों में किसान की मेहनत दिखाई देगी। बिहार का चुनाव अब केवल राजनीति की जंग नहीं, बल्कि उन हाथों का सम्मान है जो मिट्टी को सोना बनाते हैं।










