मंदिर रीति-रिवाज : तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मंदिर रीति-रिवाजों पर विशेष अधिकार का दावा किया। मदुरै के तिरुपरंकुंड्रम मंदिर में कार्तिगई दीपम जलाने के विवाद में हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना का बचाव। जानिए पूरा मामला, कानूनी पहलू और ऐतिहासिक संदर्भ।
तमिलनाडु में धार्मिक परंपराओं और न्यायिक आदेशों के बीच चल रहे विवाद ने नया मोड़ ले लिया है। डीएमके सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक अपील दायर कर मंदिर रीति-रिवाजों पर अपने विशेष अधिकार का दावा किया है। मामला मदुरै के प्रसिद्ध तिरुपरंकुंड्रम मंदिर में कार्तिगई दीपम जलाने से जुड़ा है, जहां मद्रास हाईकोर्ट के आदेश की कथित अवहेलना को लेकर अवमानना की कार्यवाही शुरू हो चुकी है। यह विवाद न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल उठाता है, बल्कि राज्य सरकार, मंदिर प्रबंधन और न्यायपालिका के बीच टकराव को भी उजागर करता है। आइए, इस पूरे मामले को विस्तार से समझते हैं।
मंदिर रीति-रिवाज कार्तिगई दीपम की परंपरा और हाईकोर्ट का हस्तक्षेप

कार्तिगई दीपम तमिलनाडु की एक प्राचीन हिंदू परंपरा है, जो कार्तिगई महीने में मनाई जाती है। तिरुपरंकुंड्रम पहाड़ी पर स्थित उची पिल्लायार मंदिर में इस दीपम को पहाड़ी की चोटी पर जलाने की सदियों पुरानी रिवायत है। लेकिन इस परंपरा पर विवाद तब शुरू हुआ जब आसपास के दर्गाह के अधिकारियों ने आपत्ति जताई, दावा करते हुए कि इससे उनके धार्मिक स्थल के अधिकारों का हनन होता है।
1 दिसंबर 2025 को मद्रास हाईकोर्ट के सिंगल जज बेंच ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए आदेश दिया कि दीपम को मंदिर के दीपथून (दीप स्तंभ) पर जलाया जाए। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इससे दर्गाह के अधिकारों का कोई अतिक्रमण नहीं होगा। लेकिन राज्य सरकार ने इस आदेश का पालन नहीं किया। इसके बजाय, दीपम को मंदिर परिसर में ही जलाया गया।
- 3 दिसंबर को दोपहर 6:05 बजे सिंगल जज ने एक और आदेश जारी किया, जिसमें याचिकाकर्ता को पहाड़ी की चोटी
- पर जाकर दीपम जलाने की अनुमति दी गई। लेकिन उसी समय जिला कलेक्टर ने बीएनएसएस की धारा 163 के तहत
- निषेधाज्ञा जारी कर दी, जिसमें सुरक्षा और कानून-व्यवस्था के नाम पर पहाड़ी पर चढ़ने पर रोक लगा दी गई। नतीजा?
- दीपम फिर से मंदिर में ही जला, और हाईकोर्ट ने अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू कर दी।
डिवीजन बेंच ने राज्य की अपील को खारिज करते हुए कहा कि कार्यकारी आदेश न्यायिक निर्देशों को ओवरराइड नहीं कर सकते। बेंच ने इसे “अच्छी तरह से डिजाइन की गई चाल” करार दिया, जो अवमानना कार्यवाही को टालने के लिए की गई। याचिकाकर्ता के वकील पी.वी. योगेश्वरन ने कहा, “एक तरफ तमिलनाडु बार-बार हाईकोर्ट के आदेशों की अवहेलना कर रहा है, दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर नाटक रच रहा है।”
तमिलनाडु सरकार का बचाव: HR&CE एक्ट 1959 के तहत विशेष अधिकार
राज्य सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए तमिलनाडु हिंदू धार्मिक एवं धर्मार्थ एंडोमेंट एक्ट, 1959 का हवाला दिया। अपील में कहा गया कि मंदिर के प्रबंधन, रीति-रिवाजों और परंपराओं पर राज्य का विशेष और एकाधिकार है। हाईकोर्ट की अवमानना क्षेत्राधिकार का उपयोग मंदिर रीति-रिवाजों पर सवाल उठाने के लिए नहीं किया जा सकता। सरकार का तर्क है कि दीपथून क्षेत्र सहित पूरा मंदिर राज्य के नियंत्रण में है, और कोर्ट का हस्तक्षेप इससे परे है।
- अपील में आगे कहा गया, “यह निर्णय अवमानना क्षेत्राधिकार की सीमाओं, वैधानिक योजनाओं के तहत मंदिर प्रबंधन
- की स्वायत्तता, पूर्व सिविल डिक्रियों और रिट पूर्वाग्रहों के प्रभाव, तथा न्यायिक आदेशों और कार्यकारी कानून-व्यवस्था
- उपायों के इंटरफेस पर महत्वपूर्ण सवाल उठाता है।” सरकार ने सुरक्षा कारणों से निषेधाज्ञा का बचाव किया
- लेकिन डिवीजन बेंच ने इसका समयबद्ध तरीके से जारी होने पर सवाल उठाए।
- 6 दिसंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई, जहां चीफ जस्टिस सूर्या कांत और जस्टिस जॉयमल्या
- बागची की बेंच ने इसे स्वीकार किया। सीजेआई ने कहा कि जल्द से जल्द लिस्टिंग पर विचार किया जाएगा
- लेकिन तत्काल सुनवाई का आश्वासन नहीं मिला। यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट
- के पटल पर है, जहां राज्य अपनी अवहेलना को चुनौती दे रहा है।
ऐतिहासिक संदर्भ: धार्मिक स्थलों के बीच टकराव
- तिरुपरंकुंड्रम पहाड़ी धार्मिक सामंजस्य का प्रतीक रही है, जहां हिंदू मंदिर और मुस्लिम दर्गाह एक-दूसरे के पड़ोस में हैं।
- लेकिन हाल के वर्षों में ऐसे विवाद बढ़े हैं, जहां एक धार्मिक परंपरा को दूसरे का हनन माना जा रहा है।
- कार्तिगई दीपम जैसी परंपराएं तमिल संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं, जो दीपावली से मिलती-जुलती हैं।
- राज्य का दावा है कि 1959 का एक्ट मंदिरों को राज्य नियंत्रण में लाकर
- उनकी रक्षा करता है, लेकिन आलोचक इसे सरकारी हस्तक्षेप बताते हैं।
- यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसलों से भी जुड़ता है, जहां धार्मिक स्थलों पर स्वायत्तता और राज्य हस्तक्षेप पर बहस हुई है।
- उदाहरण के लिए, सबरीमाला मंदिर मामले में कोर्ट ने परंपराओं को संवैधानिक अधिकारों के अधीन रखा।
- यहां भी सवाल उठता है कि क्या राज्य की कानून-व्यवस्था की आड़ में धार्मिक अधिकारों को दबाया जा सकता है?
निहितार्थ: न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन
- यह मामला तमिलनाडु में धार्मिक संस्थानों की स्वायत्तता पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। अगर सुप्रीम कोर्ट राज्य के
- पक्ष में फैसला देता है, तो हाईकोर्ट की अवमानना शक्तियां सीमित हो सकती हैं। वहीं, अगर कोर्ट याचिकाकर्ता
- को राहत देता है, तो सरकार की अवहेलना पर सख्त कार्रवाई हो सकती है। इससे न केवल मंदिर प्रबंधन कानूनों में बदलाव आ सकता है
- बल्कि धार्मिक आयोजनों के दौरान कानून-व्यवस्था के उपायों पर भी असर पड़ेगा।
- विशेषज्ञों का मानना है कि यह विवाद धर्मनिरपेक्षता के भारतीय मॉडल को परखेगा। राज्य सरकार का रुख
- डीएमके की नीतियों से मेल खाता है, जो मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में रखने पर जोर देती है।
- लेकिन भक्तों के लिए यह निराशाजनक है, क्योंकि परंपराएं बाधित हो रही हैं।
धार्मिक परंपराओं की रक्षा कैसे?
- तमिलनाडु सरकार का सुप्रीम कोर्ट में बचाव एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जो मंदिर रीति-रिवाजों पर राज्य के विशेष
- अधिकार को मजबूत करने की कोशिश करता है। लेकिन यह सवाल भी छोड़ता है कि न्यायिक आदेशों का सम्मान कैसे सुनिश्चित हो।
- उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला धार्मिक सद्भाव और कानूनी संतुलन को मजबूत करेगा।











