पड़े हैं नफ़रत के बीच दिल में बरस रहा है लहू का सावन हरी-भरी हैं सरों की फ़सलें बदन पे ज़ख़्मों के गुल खिले हैं

सावन की रुत आ पहुंची काले बादल छाएंगे कलियां रंग में भीगेंगी फूलों में रस आएंगे

बरसती आग से कुछ कम नहीं बरसात सावन की जला कर ख़ाक कर देती है दिल को रात सावन की

आंख बरसी है तिरे नाम पे सावन की तरह जिस्म सुलगा है तिरी याद में ईंधन की तरह